7:00 pm Posted In Edit This 0 Comments »

मानव का घर

चेतन समान तरु का जड़,
फैल मट्टी पर फेरे हार ।
स्वर्ग समन मानव का घर,
या धरती पर नरक का द्वार।
जड़ समान घर की नींव ,
निर्माण करती कर्मशील कर।
रक्षण हेतु जीवन का दीप ,
निर्मित यह "मानव का घर"॥

बसती गृह मे अंतरात्मा ,
जग कि बुराईयो से लड़॥
निवास हेतु पूजे जाते परमात्त्मा,
'मनु' निर्मित मानव का घर॥
निर्मित एक स्नेह का तालाब,
जिसमे फर्फराता खग अपने पर,
या फिर काटों का सैलाब,
बन्धन युक्त 'मानव का घर'॥
छत तले परिवार का गठन,
संभवतः गृह कुल का वर।
चालू होती अनुसस्निक पठन,
'विद्या घर' यह "मानव का घर"॥
रक्षित है आत्मसम्मान का धन,
पर शान्ति की गैरमौजूदगी क्यों॥
नव कोमलतर पवन कण,
मानव का घर निर्मित यूं॥
कलह -घुटन जब होती प्राविस्ट,
परिवार हो जाती तर -बतर ।
मोह लोभ तब करते आक्रिस्ट,
दरार युक्त "मानव का घर"॥
चोटी सी भी ज्वलित चिंगारी,
जला डालती प्रगति के पर।
स्नेही तालियाँ मे दुखित सवारी ,
क्या "स्नेह्मुक्त" है "मानव का घर"॥
" रोहित मिश्र भारद्वाज"

12:25 am Edit This 0 Comments »

पहचान मुझे
कविता लिखने का शौक़ मुझे,
जब तक कोई नाम ना सूझे।
बुझे दिए सा मान मुझे,
ऐय दुनिया पहचान मुझे!

जब कोई नाम सूझे तुझे,

एय दुनिया बता देना मुझे!
मोह विच्छेद करने को जूझे,
उफनता वर्नासागर मान मुझे।
दूंगा नगमों का बहार तुझे ,
एय दुनिया पहचान मुझे!

मान दिलों का चिराग मुझे,

दुनियां बदलने कि राह जब सूझे,

दूंगा बता मै तुझे,

तब जब मेरा नाम जब सूझे,

एय दुनियां पहचान मुझे!!
रोहित मिश्रा भारद्वाज